अध्याय 1: सुनहरी सुबह का धोखा
20वीं सदी की शुरुआत… एक ऐसा दौर जिसे यूरोप ‘ला बेले एपोक’ (La Belle Époque) यानी ‘सुन्दर युग’ कहकर पुकारता था। शहर बिजली की रोशनी से जगमगा रहे थे, कारें सड़कों पर दौड़ने लगी थीं, औaaर टेलीफोन की घंटियाँ भविष्य के गीत गा रही थीं। पेरिस से लेकर वियना तक, कला, विज्ञान और संस्कृति अपने चरम पर थी। ऐसा लगता था मानो इंसान ने तरक्की और शांति का रहस्य पा लिया है।
लेकिन यह सब एक खूबसूरत धोखा था। इस चमकती हुई सतह के नीचे, धरती धीरे-धीरे काँप रही थी। राष्ट्रों के बीच पुरानी दुश्मनी, नई महत्वाकांक्षाएँ और जहरीला अविश्वास एक ऐसे ज्वालामुखी को जन्म दे रहा था, जो बस फटने को तैयार था। यह कहानी है उस ज्वालामुखी के फटने की, एक ऐसी तबाही की जिसने न सिर्फ लाखों जानें लीं, बल्कि दुनिया का चेहरा और आत्मा हमेशा-हमेशा के लिए बदल कर रख दिया।
अध्याय 2: तबाही की पटकथा
कोई भी महाविनाश अचानक नहीं होता। उसकी पटकथा दशकों पहले लिखी जाती है, स्याही से नहीं, बल्कि लालच, डर और नफरत से।
जमीन और सूरज की भूख (साम्राज्यवाद): ब्रिटेन, जिसका साम्राज्य इतना विशाल था कि उस पर सूरज कभी नहीं डूबता था, और फ्रांस, जिसके पास अफ्रीका का एक बड़ा हिस्सा था, दुनिया के मालिक बने बैठे थे। लेकिन अब एक नया खिलाड़ी मैदान में उतरा था- जर्मनी। 1890 में सम्राट विल्हेम द्वितीय ने ऐलान किया कि जर्मनी को भी “सूरज के नीचे अपनी जगह” चाहिए। उसकी नज़रें अफ्रीका के बचे-खुचे हिस्सों और मध्य-पूर्व पर थीं। जर्मनी ने जब बर्लिन से बगदाद तक एक रेल लाइन बनाने की विशाल योजना शुरू की, तो लंदन और पेरिस में खतरे की घंटियाँ बजने लगीं। यह रेल लाइन ब्रिटेन के भारत जाने वाले रास्ते और स्वेज़ नहर के लिए सीधा खतरा थी। मोरक्को पर कब्ज़े को लेकर जर्मनी और फ्रांस दो बार युद्ध के कगार पर आ खड़े हुए। दुनिया एक ऐसे शतरंज के खेल में बदल चुकी थी, जहाँ हर मोहरा एक उपनिवेश था और हर चाल युद्ध के करीब ले जा रही थी।
लोहे की ज़ंजीरें (गुप्त संधियाँ): डर और शक ने पूरे यूरोप को दो सशस्त्र कैंपों में बदल दिया था। एक तरफ थी ट्रिपल अलायन्स (Triple Alliance)—जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और इटली का गुट, जो फौलादी इरादों से बंधा था। उनके खिलाफ खड़ा था ट्रिपल आंतां (Triple Entente)—ब्रिटेन, फ्रांस और रूस का गठजोड़। कागज़ पर ये रक्षा समझौते थे, जिनका मकसद शक्ति का संतुलन बनाए रखना था। लेकिन हकीकत में ये ऐसी लोहे की ज़ंजीरें बन चुके थे, जो किसी एक देश को खींचने पर सबको खाई में गिराने की गारंटी देती थीं। यूरोप एक ऐसे मकड़जाल में फँस चुका था, जिसे शांति के लिए बनाया गया था, पर जो अब विनाश का इंतज़ार कर रहा था।
तोपों और जहाज़ों की होड़ (सैन्यवाद): “अगर शांति चाहते हो, तो युद्ध के लिए तैयार रहो”—यह उस दौर का मूलमंत्र बन गया था। जर्मनी ने अपनी सेना को दुनिया की सबसे ताकतवर थल सेना बना लिया था। जवाब में, ब्रिटेन ने 1906 में HMS ड्रेडनॉट नाम का एक ऐसा क्रांतिकारी जंगी जहाज़ समंदर में उतारा, जिसने रातों-रात दुनिया की बाकी नौसेनाओं को कबाड़ बना दिया। इसके बाद जर्मनी और ब्रिटेन के बीच जहाज़ बनाने की एक पागलपन भरी होड़ शुरू हो गई। हर देश के जनरल स्टाफ ने युद्ध की विस्तृत योजनाएँ तैयार कर रखी थीं। जर्मनी का ‘श्लीफेन प्लान’ तो इस बात पर आधारित था कि कैसे सिर्फ 42 दिनों में फ्रांस को घुटनों पर लाकर रूस की तरफ मुड़ना है। युद्ध अब सिर्फ एक संभावना नहीं था, बल्कि एक सोची-समझी योजना बन चुका था।
‘हम’ बनाम ‘वो’ का ज़हर (राष्ट्रवाद): राष्ट्रवाद की भावना जो कभी देशों को आज़ाद कराने का ज़रिया थी, अब ज़हरीली हो चुकी थी। फ्रांस के बच्चे स्कूलों में यह पढ़ते हुए बड़े हो रहे थे कि कैसे 1871 में जर्मनी ने उनके दो प्रान्त, अल्सास और लोरेन, छीन लिए थे और उन्हें वापस लेना ही जीवन का लक्ष्य है। जर्मनी में ‘सर्व-जर्मन आंदोलन’ हर जर्मन-भाषी को एक झंडे के नीचे लाने का सपना देख रहा था। लेकिन सबसे विस्फोटक स्थिति बाल्कन प्रायद्वीप में थी, जिसे ‘यूरोप का बारूदखाना’ कहा जाता था। यहाँ तुर्की का ऑटोमन साम्राज्य दम तोड़ रहा था और इस खाली जगह को भरने के लिए ऑस्ट्रिया-हंगरी और रूस आपस में टकरा रहे थे। इसी बीच, सर्बिया जैसे छोटे देश ‘ग्रेटर सर्बिया’ बनाने का सपना देख रहे थे, जिसमें ऑस्ट्रिया-हंगरी के स्लाव-भाषी इलाके भी शामिल थे। रूस खुद को सभी स्लाव लोगों का ‘बड़ा भाई’ और रक्षक मानता था। इस बारूदखाने में बस एक चिंगारी लगने की देर थी।
अध्याय
और वो चिंगारी गिरी 28 जून, 1914 को।
साराजेवो की धूप भरी सुबह। ऑस्ट्रिया-हंगरी के राजकुमार, आर्कड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड, अपनी पत्नी सोफी के साथ एक खुली कार में शहर का दौरा कर रहे थे। ‘ब्लैक हैंड’ नाम के एक कट्टरपंथी सर्बियाई संगठन के हत्यारे उनकी राह देख रहे थे। पहले एक हत्यारे ने बम फेंका, लेकिन वो कार से टकराकर पीछे फट गया। काफिला आगे बढ़ गया। ऐसा लगा जैसे खतरा टल गया है।
लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था। अस्पताल में घायलों से मिलने के बाद, काफिले के ड्राइवर ने एक गलत मोड़ ले लिया।
जब उसे गलती का अहसास हुआ, तो उसने कार को रोकने के लिए ब्रेक लगाया। दुर्भाग्य से, कार ठीक उसी जगह रुकी जहाँ एक 19 साल का हत्यारा, गैवरिलो प्रिंसिप, नाकाम कोशिश के बाद एक सैंडविच खा रहा था। उसने अपनी जेब से पिस्तौल निकाली और दो गोलियाँ चला दीं। एक राजकुमार के गले में लगी, दूसरी उनकी पत्नी के पेट में। कुछ ही मिनटों में, दोनों की मौत हो चुकी थी। यह सिर्फ एक हत्या नहीं थी। यह इतिहास का वो मोड़ था जहाँ से वापसी नामुमकिन थी। इसके बाद जो हुआ, वो एक महीने तक चला कूटनीतिक नाटक था, जिसे ‘जुलाई संकट’ कहते हैं।
ऑस्ट्रिया-हंगरी ने सर्बिया को कुचलने का फैसला किया। उसने जर्मनी से पूछा कि क्या वो साथ देगा? जर्मनी के सम्राट ने इसे “ब्लैंक चेक” थमा दिया—यानी तुम जो चाहो करो, हम तुम्हारे साथ हैं। ऑस्ट्रिया ने सर्बिया को 48 घंटे का एक ऐसा अल्टीमेटम दिया, जिसमें ऐसी शर्तें थीं जिन्हें कोई भी संप्रभु देश स्वीकार नहीं कर सकता था।
रूस के ज़ार निकोलस द्वितीय और जर्मनी के सम्राट विल्हेम द्वितीय (“विली” और “निकी” जो आपस में चचेरे भाई थे) एक-दूसरे को तार भेजकर युद्ध रोकने की आखिरी कोशिशें करते रहे, लेकिन उनकी सेनाएँ और उनकी संधियाँ उन्हें खाई की तरफ धकेल रही थीं। 28 जुलाई को ऑस्ट्रिया ने सर्बिया पर हमला कर दिया।
और फिर… वो लोहे की ज़ंजीरें कसने लगीं।
सर्बिया की रक्षा के लिए रूस ने अपनी विशाल सेना को लामबंद करना शुरू कर दिया। रूस को रोकने के लिए जर्मनी ने पहले रूस और फिर उसके दोस्त फ्रांस के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। जर्मनी ने अपनी ‘श्लीफेन प्लान’ के तहत तटस्थ बेल्जियम पर हमला कर दिया।
और बेल्जियम की रक्षा की संधि से बंधे ब्रिटेन ने 4 अगस्त को जर्मनी के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया। जो लड़ाई बाल्कन की गलियों में शुरू हुई थी, वो अब एक विश्व युद्ध बन चुकी थी। “क्रिसमस तक घर वापसी” का नारा लगाते हुएलाखों नौजवान हँसते-गाते युद्ध के लिए निकल पड़े। उन्हें अंदाज़ा भी नहीं था कि वे एक ऐसे नर्क में जा रहे हैं, जहाँ से वापसी या तो ताबूत में होगी या टूटी हुई आत्मा के साथ।
अध्याय 3: खंदकों का नर्क और दुनिया भर में फैली आग
यह युद्ध किसी भी पिछली लड़ाई जैसा नहीं था। पश्चिमी मोर्चे पर, जर्मनी की तेज-तर्रार योजना फ्रांस की राजधानी पेरिस से कुछ ही मील पहले, मार्न नदी के किनारे रोक दी गई। इसके बाद दोनों सेनाओं ने खुद को बचाने के लिए खाइयाँ खोदनी शुरू कर दीं। जल्द ही, ये खाइयाँ स्विस आल्प्स से लेकर उत्तरी सागर तक 475 मील लंबी एक ज़हरीली नासूर बन गईं।
यह खंदकों की लड़ाई थी। एक ऐसी दुनिया जहाँ सैनिक महीनों तक कीचड़, चूहों, जूँओं और अपने ही साथियों की सड़ती लाशों के बीच रहते थे। हमला करने का मतलब था अपनी खाई से निकलकर दुश्मन की मशीनगनों की बौछार के सामने दौड़ना, जिसमें मिनटों में हज़ारों लोग मारे जाते थे। सोम्मे की लड़ाई के पहले ही दिन, ब्रिटिश सेना ने लगभग 60,000 सैनिक खो दिए थे—इतिहास में उनका सबसे खूनी दिन। वर्दुन की लड़ाई में 10 महीनों में 7 लाख से ज़्यादा फ्रांसीसी और जर्मन सैनिक मारे गए, सिर्फ कुछ वर्ग मील ज़मीन के लिए। ज़हरीली गैस, टैंक, और हवाई जहाज़ जैसे नए हथियारों ने इस नरसंहार को और भी भयानक बना दिया।
यह आग सिर्फ यूरोप तक सीमित नहीं रही। मध्य-पूर्व में, ब्रिटिश और ऑटोमन साम्राज्य गैलीपोली के तटों पर और अरब के रेगिस्तानों में लड़ रहे थे, जहाँ ‘लॉरेंस ऑफ अरेबिया’ ने इतिहास रचा। अफ्रीका में, जर्मन उपनिवेशों पर मित्र राष्ट्रों ने हमला कर दिया। अटलांटिक महासागर में, जर्मन यू-बोट (पनडुब्बियाँ) मित्र राष्ट्रों के जहाज़ों को डुबो रही थीं, जिससे ब्रिटेन भुखमरी की कगार पर पहुँच गया था।
1917 में युद्ध का पासा पलटा। जर्मनी के अंधाधुंध पनडुब्बी हमलों और ‘ज़िमरमैन टेलीग्राम’ (जिसमें जर्मनी ने मेक्सिको को अमेरिका पर हमला करने के लिए उकसाया था) से तंग आकर संयुक्त राज्य अमेरिका युद्ध में कूद पड़ा। उसी साल, रूस में क्रांति हो गई। लेनिन ने सत्ता में आते ही “शांति, भूमि और रोटी” का वादा किया और रूस को युद्ध से बाहर निकाल लिया।
अध्याय 4: अंत और एक अधूरा हिसाब
अमेरिका के ताज़ा सैनिकों के आने से मित्र राष्ट्रों को नई ताकत मिली। जर्मनी ने 1918 के वसंत में अपना आखिरी और सबसे बड़ा हमला किया, लेकिन वो नाकाम रहा। इसके बाद मित्र राष्ट्रों के जवाबी हमले ने जर्मन सेना की कमर तोड़ दी। जर्मनी के सहयोगी, बुल्गारिया, ऑटोमन साम्राज्य और ऑस्ट्रिया-हंगरी, एक-एक करके ढह गए।
जर्मनी के अंदर भी हालात बिगड़ चुके थे। भुखमरी और हार से तंग आकर जर्मन नौसेना ने विद्रोह कर दिया। सम्राट विल्हेम द्वितीय को गद्दी छोड़कर हॉलैंड भागना पड़ा। और आखिरकार, 11वें महीने के 11वें दिन, 11 बजे, 11 नवंबर 1918 को, फ्रांस के कॉम्पिएन जंगल में एक रेलवे वैगन के अंदर, जर्मनी ने युद्धविराम पर हस्ताक्षर कर दिए।
बंदूकें शांत हो गईं। चार साल का प्रलय समाप्त हो गया। लेकिन जब धुआँ छँटा, तो दुनिया एक खंडहर में तब्दील हो चुकी थी।
अध्याय 5: ज़ख्म और एक और युद्ध का बीज
युद्ध ने लगभग 1 करोड़ सैनिक और 70 लाख आम नागरिक छीन लिए थे। एक पूरी पीढ़ी बर्बाद हो गई थी। स्पैनिश फ्लू की महामारी ने युद्ध के तुरंत बाद करोड़ों और लोगों को मार डाला। चार महान साम्राज्य—रूसी, जर्मन, ऑस्ट्रिया-हंगरी और ऑटोमन—इतिहास के पन्नों में दफन हो गए।
भारत ने इस युद्ध में 10 लाख से ज़्यादा सैनिक भेजे थे। वे इस उम्मीद में लड़े थे कि उनकी वफादारी का इनाम स्व-शासन होगा। लेकिन युद्ध खत्म होते ही उन्हें मिला रौलेट एक्ट जैसा दमनकारी कानून और जलियाँवाला बाग जैसा नरसंहार। इस धोखे ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को एक ऐसी चिंगारी दी, जिसने उसे जन-आंदोलन में बदल दिया।
युद्ध के बाद, विजेता देशों ने पेरिस के पास वर्साय के महल में एक शांति संधि तैयार की। यह शांति कम और बदला ज़्यादा था। जर्मनी को युद्ध का एकमात्र गुनहगार ठहराया गया। उस पर भारी-भरकम जुर्माना लगाया गया, उसकी सेना को लगभग खत्म कर दिया गया, और उससे उसके सारे उपनिवेश छीन लिए गए। इस संधि पर हस्ताक्षर उसी ‘हॉल ऑफ मिरर्स’ में करवाए गए, जहाँ 1871 में जर्मनी ने अपनी जीत का जश्न मनाकर फ्रांस को अपमानित किया था।
यह अपमान का बीज था, जिसे वर्साय की संधि ने जर्मनी की ज़मीन में बो दिया था। यह एक ऐसी शांति थी, जिसने किसी को संतुष्ट नहीं किया। फ्रांसीसी मार्शल फर्डिनेंड फोच ने संधि को पढ़कर कहा था, “यह शांति नहीं है। यह सिर्फ 20 साल के लिए युद्धविराम है।”
और उनकी भविष्यवाणी अक्षरशः सच हुई। उसी रेलवे वैगन में, जहाँ जर्मनी ने आत्मसमर्पण किया था, ठीक 22 साल बाद एडॉल्फ हिटलर फ्रांस से उसका आत्मसमर्पण स्वीकार करेगा। प्रथम विश्व युद्ध, जिसे “सभी युद्धों को समाप्त करने वाला युद्ध” कहा गया था, असल में 20वीं सदी के सबसे बड़े महाविनाश, द्वितीय विश्व युद्ध की प्रस्तावना बनकर रह गया। कहानी अभी खत्म नहीं हुई थी… असली क़यामत तो अभी बाकी थी।
1. प्रश्न: प्रथम विश्व युद्ध कब और क्यों शुरू हुआ था?
प्रथम विश्व युद्ध 28 जुलाई 1914 को शुरू हुआ और 11 नवंबर 1918 को समाप्त हुआ। इसका आरंभ एक हत्या से हुआ — जब 28 जून 1914 को ऑस्ट्रिया-हंगरी के युवराज फ्रांज फर्डिनेंड और उनकी पत्नी की सर्बिया समर्थक उग्रवादी संगठन ‘ब्लैक हैंड’ के सदस्य गैवरिलो प्रिंसिप ने साराजेवो में गोली मारकर हत्या कर दी। यह घटना उस समय यूरोप में फैले राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद, सैन्यवाद और गुप्त संधियों की जटिल राजनीति के बीच एक चिंगारी साबित हुई, जिसने पहले बाल्कन क्षेत्र और फिर पूरी दुनिया को युद्ध में धकेल दिया।
2. प्रश्न: प्रथम विश्व युद्ध के मुख्य कारण क्या थे?
प्रथम विश्व युद्ध अचानक नहीं हुआ, यह कई दशकों से बन रही राजनीतिक, सैन्य और वैचारिक उलझनों का परिणाम था। इसके प्रमुख कारण थे:
- साम्राज्यवाद (Imperialism): यूरोपीय देशों के बीच उपनिवेशों की होड़।
- सैन्यवाद (Militarism): शक्तिशाली सेनाओं और हथियारों की दौड़।
- गुप्त संधियाँ (Secret Alliances): Triple Alliance और Triple Entente जैसी सैन्य साझेदारियाँ।
- राष्ट्रवाद (Nationalism): देशभक्ति की भावना का अतिवादी रूप, खासकर बाल्कन क्षेत्र में।
आर्थिक प्रतिस्पर्धा और शक्ति संघर्ष: ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के बीच वैश्विक प्रभुत्व की जंग।
इन सभी तत्वों ने एक बारूद के ढेर जैसा माहौल बना दिया था, जिसे साराजेवो की हत्या ने विस्फोटित कर दिया।
3. प्रश्न: साराजेवो की हत्या क्यों महत्वपूर्ण थी?
साराजेवो की घटना महज़ एक हत्या नहीं थी, बल्कि वह एक इतिहास बदल देने वाली घटना थी। जब आर्कड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड की हत्या हुई, तो ऑस्ट्रिया-हंगरी ने सर्बिया पर कठोर अल्टीमेटम थोप दिया। सर्बिया के पीछे खड़ा था रूस, और ऑस्ट्रिया के साथ था जर्मनी। ये सब गुप्त संधियों से जुड़े हुए थे, जिससे कुछ ही दिनों में स्थानीय विवाद एक वैश्विक युद्ध में बदल गया।
4. प्रश्न: Triple Entente और Triple Alliance में कौन-कौन से देश थे?
युद्ध से पहले यूरोप दो बड़े सैन्य गुटों में बंट चुका था:
- Triple Alliance (त्रिगुट संधि):
- जर्मनी
- ऑस्ट्रिया-हंगरी
- इटली (बाद में बाहर हो गया और Entente में चला गया)
- Triple Entente (त्रिगुट समझौता):
- ब्रिटेन
- फ्रांस
- रूस
इन गुटों की संधियाँ शुरू में सुरक्षा के लिए बनाई गई थीं, लेकिन युद्ध के दौरान यही गुट पूरी दुनिया को अपनी-अपनी तरफ खींच लाए।
5. प्रश्न: श्लीफेन प्लान क्या था और यह क्यों फेल हुआ?
श्लीफेन प्लान जर्मनी की युद्ध योजना थी, जिसका उद्देश्य यह था कि वह पहले फ्रांस पर तेजी से हमला कर उसे जल्दी हराए, फिर रूस की तरफ सेना मोड़े। जर्मनी ने बेल्जियम को पार करके फ्रांस पर हमला किया, जिससे ब्रिटेन भी युद्ध में कूद पड़ा।
- यह योजना असफल हो गई क्योंकि:
- बेल्जियम ने कड़ा प्रतिरोध किया।
- फ्रांस और ब्रिटेन की सेनाओं ने मार्न नदी पर जर्मन सेना को रोक लिया।
- रसद और सप्लाई लाइनें कमजोर पड़ गईं।
- रूस ने अपेक्षा से जल्दी मोर्चा खोल दिया।
इस असफलता के बाद युद्ध खाइयों में बदल गया।
6. प्रश्न: खंदकों की लड़ाई (Trench Warfare) क्यों प्रसिद्ध है?
खंदकों की लड़ाई इस युद्ध की सबसे प्रमुख और क्रूर विशेषता थी। पश्चिमी मोर्चे पर, सैनिक 475 मील लंबी खाइयों में महीनों तक रहते थे, कीचड़, चूहों, जूँ और लाशों के बीच। युद्ध की यह शैली स्थिर थी और बहुत कम ज़मीन के लिए लाखों सैनिक मारे जाते थे।
उदाहरण:
- सोम्मे की लड़ाई (1916): पहले दिन ही ब्रिटेन ने 60,000 सैनिक खो दिए।
- वर्दुन की लड़ाई: लगभग 10 लाख सैनिक मारे गए।
यह युद्ध अब मानवता की परीक्षा बन चुका था, ना कि सिर्फ ताकत का खेल।
7. प्रश्न: प्रथम विश्व युद्ध में भारत की भूमिका क्या थी?
भारत ने ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहते हुए युद्ध में 10 लाख से अधिक सैनिक भेजे थे। ये सैनिक फ्रांस, मेसोपोटामिया, गैलिपोली और अफ्रीका में लड़े। भारत को उम्मीद थी कि इस वफादारी का इनाम स्वराज होगा, लेकिन युद्ध के बाद रौलेट एक्ट, जलियाँवाला बाग हत्याकांड जैसे काले अध्याय सामने आए।
इस धोखे ने भारत में आज़ादी की लड़ाई को तेज़ कर दिया और महात्मा गांधी के नेतृत्व में जन आंदोलन की नींव पड़ी।
8. प्रश्न: Versailles संधि क्या थी और इसके परिणाम क्या निकले?
वर्साय संधि (Treaty of Versailles) 28 जून 1919 को जर्मनी और मित्र राष्ट्रों के बीच हस्ताक्षरित हुई थी। इसके तहत:
- जर्मनी को युद्ध का अपराधी घोषित किया गया।
- भारी जुर्माना लगाया गया।
- उसकी सेना और नौसेना को काट-छांट दिया गया।
- सारे उपनिवेश छीन लिए गए।
इस संधि ने जर्मन जनता में अपमान और गुस्से की भावना भर दी, जिसने बाद में हिटलर के उदय और द्वितीय विश्व युद्ध को जन्म दिया।
9. प्रश्न: प्रथम विश्व युद्ध में कौन-कौन से नए हथियार उपयोग में लाए गए थे?
इस युद्ध में कई आधुनिक और खतरनाक हथियार पहली बार उपयोग में लाए गए:
- ज़हरीली गैस (Mustard gas, Chlorine)
- मशीन गन
- टैंक
- पनडुब्बियाँ (U-Boats)
- हवाई जहाज़ों द्वारा बमबारी
इन हथियारों ने युद्ध को नरसंहार में बदल दिया और मानवीय पीड़ा की नई परिभाषा गढ़ी।
10. प्रश्न: क्या प्रथम विश्व युद्ध ही द्वितीय विश्व युद्ध की वजह बना?
हां, अधिकांश इतिहासकार मानते हैं कि प्रथम विश्व युद्ध और वर्साय की संधि ने ही द्वितीय विश्व युद्ध की भूमिका तैयार की। जर्मनी को अपमानित और आर्थिक रूप से तबाह कर दिया गया था। इसी गुस्से और बदले की भावना ने हिटलर जैसे नेता को उभरने का मौका दिया।
इतना ही नहीं, वर्साय संधि जिस “हॉल ऑफ मिरर्स” में साइन की गई थी, वहीं हिटलर ने 1940 में फ्रांस से उसका आत्मसमर्पण स्वीकार किया।