एक तोप जिसने भारतीय राजनीति में भूचाल ला दिया और फिर रणभूमि में अपनी धाक जमाई – विवादों और वीरता की एक अनकही दास्तान।
दोस्तों, हिंदुस्तान में जब भी आप बोफोर्स तोपों का नाम सुनते हैं, तो आपको हमेशा इससे जुड़ा वो घोटाला ही याद आता होगा, जिसने कांग्रेस को 1989 का चुनाव हरवा दिया था, और भारत के पूर्व रक्षा मंत्री और कांग्रेस के बागी वी.पी. सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी दिलवाई थी। लेकिन दोस्तों, बोफोर्स के साथ एक कहानी और भी जुड़ी है, और ये कहानी है कारगिल युद्ध की। इस युद्ध में बोफोर्स को ‘गेम चेंजर’ कहा गया। अब ऐसा क्यों कहा गया, ये बोफोर्स तोपें काम कैसे करती हैं, और क्या थी इसके घोटाले की पूरी कहानी? आइए, विस्तार से जानते हैं।
बोफोर्स तोपें: क्यों हैं इतनी खास?
सबसे पहले यह समझते हैं कि ये बोफोर्स गन्स या फिर तोपें इतनी खास क्यों हैं? बोफोर्स आर्टिलरी गन्स सबसे ज़्यादा अपनी लंबी दूरी तक मार करने की क्षमता की वजह से जानी जाती हैं। बोफोर्स के पास लगभग तीस किलोमीटर तक वार करने की अचूक क्षमता है, और ऊँचे पहाड़ी इलाकों या हाई एल्टीट्यूड वाले वातावरण में तो यह क्षमता पैंतीस से छत्तीस किलोमीटर तक बढ़ जाती है। यह खूबी भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत के ज़्यादातर संवेदनशील सीमावर्ती क्षेत्र पहाड़ी इलाकों में ही स्थित हैं।
इसके अलावा, बाकी आर्टिलरी गन्स के साथ एक बड़ी परेशानी यह रहती है कि वो बहुत ही भारी होती हैं। इस वजह से उन्हें ट्रक के पीछे बांधकर ले जाना पड़ता है और फिर ट्रक से हटाने के बाद भी कई जवानों की मदद से ही उन्हें सही पोजीशन पर सेट किया जा सकता है। लेकिन बोफोर्स तोप में एक इनबिल्ट मर्सिडीज बेंज का इंजन लगा होता है, जो इसे खुद चलने की ताकत देता है। इस कारण इसे किसी भी और वाहन पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। और दोस्तों, जंग के वक्त मोबिलिटी यानी तेजी से एक जगह से दूसरी जगह जाने की क्षमता एक बहुत बड़ा निर्णायक फैक्टर माना जाता है। इसी वजह से बोफोर्स की ये तोपें जंग में बहुत कामयाब साबित हुईं।
युद्धभूमि में बोफोर्स का संचालन और मारक क्षमता
युद्ध के दौरान, जवानों द्वारा इन तोपों को सही लोकेशन पर सेट करने के बाद इनके ऊपर कैमोफ्लाज कवर (छलावरण जाल) डाल दिया जाता है, जिससे दुश्मन को ऊपर से देखने पर ये गन्स नज़र न आएं। इसके बाद, एक कमांड सेंटर में बैठकर सूचना का इंतज़ार किया जाता है। कुछ अनमैन्ड प्लेन्स (ड्रोन), रडार सिस्टम, और सैटेलाइट्स की मदद से दुश्मन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी इकट्ठी की जाती है, और फिर कमांड कंट्रोल यूनिट में बैठे लोग टारगेट की पहचान करते हैं। टारगेट की पहचान होने के बाद उसके सटीक कोऑर्डिनेट्स (स्थान के निर्देशांक) को बोफोर्स यूनिट तक पहुंचाया जाता है, और फिर ये गन्स ऑटोमेटिकली खुद को उस टारगेट के अनुसार एडजस्ट कर लेती हैं। दोस्तों, बोफोर्स गन्स नब्बे डिग्री तक के ऊँचे टारगेट को भी शूट करने में सक्षम हैं, जिस वजह से कारगिल के युद्ध में वह आसानी से टाइगर हिल पर बैठे पाकिस्तानी सिपाहियों पर कहर बनकर टूट पड़ी थीं।
पोजीशन लेने के बाद इन बोफोर्स तोपों में शेल्स (गोलों) को लोड किया जाता है। बोफोर्स गन्स अलग-अलग तरह के राउंड्स दुश्मन पर फायर कर सकती हैं। इनमें से पहला है हाई एक्सप्लोसिव्स (HE) या HEE, जिसमें आठ किलो का भारी टीएनटी विस्फोटक भरा होता है। इसके अलावा, बोफोर्स में एक बार में 3 राउंड का बर्स्ट फायर भी किया जा सकता है, जो दुश्मन के छिपे हुए ठिकानों को तबाह कर सकता है। इनके बाद आते हैं स्मोक राउंड्स, जो आगे बढ़ रहे सैनिकों को कवर देने या दुश्मन की Sicht (देखने की क्षमता) को बाधित करने का काम करते हैं। और फिर हैं कार्गो राउंड्स – ये उस तरह के राउंड्स होते हैं जो जहां भी गिरते हैं, वहां लैंड माइन्स बिछा देते हैं, और जैसे ही दुश्मन के टैंक्स या सैनिक वहां आते हैं, उनके परखच्चे उड़ जाते हैं।
बोफोर्स घोटाला: एक भूचाल की शुरुआत
तो दोस्तों, अब बात करते हैं भारत में इससे जुड़े उस बहुचर्चित घोटाले की। मार्च उन्नीस सौ छियासी (1986) में भारतीय सरकार और स्वीडिश कंपनी एबी बोफोर्स के बीच यह डील साइन हुई थी। लेकिन अगले ही साल, अप्रैल उन्नीस सौ सत्तासी (1987) तक, स्वीडिश रेडियो पर यह ख़बर आने लगी कि बोफोर्स की डीलिंग में भारतीय सरकार के कुछ मंत्रियों और नौकरशाहों ने रिश्वत खाई है। ये सभी बातें स्वीडन में हो रही थीं और भारतीय मीडिया था कि इसे पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर रहा था।
घोटाले का पर्दाफाश और राजनीतिक भूचाल
फिर ‘द हिंदू’ अखबार के लिए काम कर रहीं पत्रकार चित्रा सुब्रमण्यम स्वीडन में किसी और मामले पर रिपोर्टिंग करने गईं, और उन्हें इस स्कैंडल के बारे में पता चला। उन्होंने ही भारत में भी ये न्यूज़ ब्रेक की। उन्नीस सौ सत्तासी (1987) में reacting to the scandal, the Indian government put a hold on the deal and blacklisted बोफोर्स कंपनी को ब्लैक लिस्ट कर दिया। शुरुआती जांच में एक इटालियन बिजनेसमैन, ओत्तावियो क्वात्रोची का नाम सामने आया, जो स्वीडन और भारत की सरकार के बीच इस डील में बिचौलिए का काम कर रहा था।
इसी साल वी.पी. सिंह ने किसी और मामले में रक्षा मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया और दो साल बाद वो बोफोर्स को ही मुद्दा बनाकर राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव में उतर गए। राजीव गांधी चुनाव हार गए और बोफोर्स पर एक विस्तृत जांच बैठी। इसी बीच चित्रा सुब्रमण्यम को भी स्वीडिश पुलिस द्वारा लगभग साढ़े तीन सौ दस्तावेज़ दिए गए। लेकिन उनकी सनसनीखेज रिपोर्टिंग और तत्कालीन सरकार के लगातार दबाव के कारण उन्हें ‘द हिंदू’ छोड़ना पड़ा। पर उन्होंने हार नहीं मानी और ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ और फिर ‘द स्टेट्समैन’ अखबार में अपना काम जारी रखा।
कारगिल युद्ध: जब ‘दागी’ बोफोर्स बनी ‘गेम चेंजर’
साल उन्नीस सौ सत्तानवे (1997) आते-आते स्विस बैंक बोफोर्स से जुड़े पांच सौ दस्तावेज़ जारी करने के लिए मान गया। लेकिन फिर उन्नीस सौ निन्यानवे (1999) में पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया और कारगिल की चोटियों, जिसमें टाइगर हिल भी शामिल था, पर उनका क़ब्ज़ा हो गया। सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बोफोर्स पर से बैन हटा दिया और करीब सौ से ज़्यादा बोफोर्स आर्टिलरी गन्स को कारगिल युद्ध में इस्तेमाल किया गया। कारगिल की ऊँची पहाड़ियों में बोफोर्स का प्रदर्शन बेहद कारगर साबित हुआ। बोफोर्स गन बारह सेकंड में तीन राउंड फायर कर सकती थी और 90 डिग्री के एंगल पर भी टारगेट को शूट कर सकती थी, और इसीलिए कारगिल में हमारी जीत में इसका अहम योगदान रहा।
युद्ध के बाद: कानूनी दांव-पेंच और सीबीआई जांच
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार ने बोफोर्स का केस सीबीआई को सौंप दिया और सीबीआई ने अपनी पहली चार्जशीट में विन चड्ढा और पूर्व रक्षा सचिव एस.के. भटनागर के खिलाफ आरोप दायर किए। 2001 में विन चड्ढा और एस.के. भटनागर की मौत हो गई। और फिर 2002 में दिल्ली हाई कोर्ट का एक अजीबोगरीब फ़ैसला आया, जिसमें उसने इस सारी जांच को ही भंग कर दिया। लेकिन फिर सुप्रीम कोर्ट ने दो हज़ार तीन (2003) में इस फ़ैसले को पलटते हुए कार्यवाही जारी रखने की मांग की।
ओत्तावियो क्वात्रोची: एक रहस्यमयी कड़ी और फ़रारी का सिलसिला
दो हज़ार चार (2004) तक यूपीए फिर से सत्ता में आ चुकी थी और राजीव गांधी के खिलाफ रिश्वत लेने के सारे इल्जामों को खारिज कर दिया गया। और फिर यहां से कहानी एक नया मोड़ लेती है। सन दो हज़ार पांच (2005) में भारत के एडिशनल सॉलिसिटर जनरल, बी. दत्त ने ब्रिटिश सरकार से यह अपील की कि वह ओत्तावियो क्वात्रोची के फ्रीज किए गए बैंक अकाउंट्स को अनफ्रीज कर दे। सुप्रीम कोर्ट ने इसके बाद तत्कालीन सरकार से कहा कि अगर वह ऐसा करना ही चाहते हैं तो वह लंदन के उन बैंकों को यह भी कहें कि उन अकाउंट्स में जो भी पैसा पड़ा है, उन्हें फिलहाल निकालने न दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट के इस मामले का संज्ञान लेने के बावजूद, क्वात्रोची इन बैंकों से अपना पैसा निकालकर फरार हो चुका था। एक बिजनेसमैन, जो गांधी परिवार का करीबी माना जाता था, उसे सरकार ने इतनी ढील क्यों दी? यह सवाल आज भी कायम है।
लेकिन फिर दो हज़ार सात (2007) में ओत्तावियो क्वात्रोची को अर्जेंटीना में गिरफ्तार किया गया। लेकिन उसे फिर छोड़ दिया गया और उसके देश छोड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अब चूंकि भारत और अर्जेंटीना के बीच कोई प्रत्यर्पण संधि (Extradition Treaty) नहीं थी, इसीलिए यह केस अर्जेंटीना में ही फाइल किया गया। इस केस में भारत सरकार और सीबीआई, अर्जेंटीना सुप्रीम कोर्ट में कुछ ख़ास सबूत पेश नहीं कर पाई और ना ही वह कोर्ट ऑर्डर समय पर प्रस्तुत कर पाई, जिससे क्वात्रोची की गिरफ्तारी संभव हुई थी। और इसीलिए उसे वहां भी छोड़ दिया गया। कुछ लोग मानते हैं कि सीबीआई और सरकार ने जानबूझकर ऐसा किया ताकि मामला कमजोर पड़ जाए।
अधूरा इंसाफ और अनसुलझे सवाल
दो हज़ार ग्यारह (2011) में दिल्ली हाई कोर्ट ने भी क्वात्रोची को इस केस से अस्थायी राहत दे दी थी और 2013 में क्वात्रोची की मिलान में हार्ट अटैक से मौत हो गई। और कहानी ढाक के तीन पात ही रही। कुछ ठोस सामने नहीं आया और किसी को सज़ा नहीं हुई। कुछ हुआ तो बस हो-हल्ला। राजीव गांधी को क्लीन चिट मिली, तो वी.पी. सिंह को सत्ता, और कांग्रेस के करीबी माने जाने वाले ओत्तावियो क्वात्रोची को सीबीआई ज़िंदगी भर पकड़ नहीं पाई।
राजनीतिक दबाव और सीबीआई की भूमिका पर संदेह
इस केस का रुख तब से ज़्यादा बदला जब यूपीए वापस सत्ता में आई। इससे लोग यह अंदाज़ा लगाते हैं कि कांग्रेस ने जानबूझकर सीबीआई पर केस को कमज़ोर करने का दबाव बनाया ताकि उनके पूर्व नेता की छवि खराब न हो। सीबीआई के खिलाफ़ भी कई विशेषज्ञों ने उंगली उठाई, लेकिन कुछ ठोस कार्रवाई नहीं की जा सकी। दो हज़ार बारह (2012) में स्वीडिश पुलिस चीफ, जिन्होंने चित्रा सुब्रमण्यम को वो साढ़े तीन सौ दस्तावेज़ दिए थे, उन्होंने भी माना कि इस केस में राजीव गांधी की सीधी भूमिका नहीं थी, लेकिन वह इस बारे में जानते ज़रूर थे। इसके अलावा, उन्होंने उस वक्त की स्वीडिश सरकार पर भी कई गंभीर आरोप लगाए और ज़्यादातर उन्हें ही इस पूरे स्कैंडल का ज़िम्मेदार भी ठहराया।
आपको इस केस के बारे में क्या लगता है? हमें नीचे कमेंट सेक्शन में ज़रूर बताएं। उम्मीद है इस विवरण को जानने के बाद आपको काफ़ी कुछ नया जानने को मिला होगा।